सुबह बस एक
कप चाय बनती
है,
और टोस्ट भी प्लेट
पर तनहा ही
दिखता है,
आजकल हमारा घर कुछ
अकेला लगता है.
अपने पीछे दरवाज़ा
बंद कर निकल
तो जाते हैं,
दिन का खाना
ऑफीस के कॅंटीन
से ही मँगवाते
हैं,
काम में डूबे
रहना ठीक लगता
है, क्योंकि
आजकल हमारा घर कुछ
अकेला पड़ता है.
थकान से चूर
चाबी जब ताले
से लगती है,
और माइक्रोवेव की बीप
कहती है खाना
खा लो,
टीवी की आवाज़
रिक्त कोनो को
भी भर देती
है, फिर भी
हमारा घर कुछ
अकेला लगता है.
नींद भी आ
ही जाती है
सौ पन्नो के
बाद,
किताब भी लुढ़क
जाती है लाइट
ऑफ होने के
बाद,
खिड़की से हज़ारों
सितारे झाँक कर
देखते हैं,
उन्हे भी हमारा
घर अकेला लगता
है.
अपने अकेलेपन पर जब
तरस खाते हैं
हम,
पड़ोस से कड़वी
आवाज़ें सुनाई देती हैं,
रोशनी को धीमा
करके, राहत को
तेज़ कर देते
हैं हम,
सोचते हैं, हमारा
घर अकेला है,
मगर अच्छा लगता
है.
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